एक महात्मा एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे । वो रोज एक लकड़हारे (Woodcutter) को लकड़ी काट कर ले जाते देखते थे।
एक दिन उन्होंने लकड़हारे (Woodcutter) से कहा कि सुन भाई, दिन-भर लकड़ी काटता है, दो समय की रोटी भी नहीं जुट पाती । तू जरा आगे क्यों नहीं जाता, वहां आगे चंदन का जंगल है ।
एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा ।
गरीब लकड़हारे (Woodcutter) को विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है ! जंगल में लकड़ियां काटते-काटते ही तो जिंदगी बीती । यह महात्मा यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा ?
मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो ! फिर झूठ कहेगा भी क्यों ? शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है । कभी बोला भी नहीं इसके पहले । एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है ।
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महात्मा की बातों पर विश्वास कर वह आगे गया । लौटा तो महात्मा के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां के बारे में कौन जानता है ।
मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी । मेरा बाप भी लकड़हारा (Woodcutter) था, उसका बाप भी लकड़हारा (Woodcutter) था । हम यही जलाऊ-लकड़ियां काटते-काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या ! हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही । तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई, तुमने परख दी ।
मैं भी कैसा अभागा ! काश, पहले पता चल जाता ! महात्मा ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है । जब जागा तभी सबेरा है । दिन बड़े मजे में कटने लगे ।
एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती।
एक दिन महात्मा ने कहा ; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी । जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए ; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है ?
उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है ?
उस महात्मा ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है । लकड़ियाँ-वकरियाँ काटना छोड़ो ।
एक दिन ले आओगे, दो-चार छ: महीने के लिए हो गया ।
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अब तो वह महात्मा पर भरोसा करने लगा था । बिना संदेह किये भागा । चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या ! चांदी ही चांदी थी ! चार-छ: महीने नदारद हो जाता । एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता ।
लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है ।
महात्मा ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझे ही तुम्हें जगाना पड़ेगा ।
आगे सोने की खदान है मूर्ख ! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं ?
अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है । जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल नहीं आता ?
उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस बात बन गई, अब और क्या होगा ?
गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था । फकीर ने कहा, थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है ।
फिर और आगे हीरों की खदान है । और ऐसे Story चलती है । और एक दिन महात्मा ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया ?
अब तो उस लकड़हारे (Woodcutter) को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे । उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो । अब हीरों के आगे क्या हो सकता है ?
उस महात्मा ने कहा, हीरों के आगे मैं हूं । तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं ले रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा ! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा ?
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वह आदमी रोने लगा । महात्मा के चरणों में सिर पटक दिया । कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं, मुझे यह सवाल ही नहीं आता ।
तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है । यह ख्याल तो मेरे जन्मों-जन्मों में नहीं आ सकता था । कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है । महात्मा ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है ।
अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं । अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे आगे है ।
यही मैं तुमसे कहता हूं : और आगे, और आगे । चलते ही जाना है । उस समय तक मत रुकना जब तक कि सारे अनुभव शांत न हो जाएं ।
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परमात्मा का अनुभव भी जब तक होता रहे, समझना दुई मौजूद है, द्वैत मौजूद है, देखनेवाला और दृश्य मौजूद है । जब वह अनुभव भी चला जाता है तब निर्विकल्प समाधि । तब सिर्फ दृश्य नहीं बचा, न द्रष्टा बचा, कोई भी नहीं बचा । एक सन्नाटा है, एक शून्य है । और उस शून्य में जलता है बोध का दीया। बस बोधमात्र, चिन्मात्र ! वही परम है । वही परम-दशा है, वही समाधि है ।